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Nov 13, 2011

हमारी भूलें : आहार व्यवहार की अपवित्रता : अंतिम भाग

भाग-१भाग- २ से आगे............
अब हम मुख्य विषय पर आते है| एक ब्राह्मण अध्ययन के लिए दूर देश जा रहा था| मार्ग में एक प्रेत मिला व ब्राह्मण बालक को मारने का भय दिखाया| जब बालक ने यह कहा कि तू मेरी अभी ह्त्या मत कर, मैं शिक्षित होकर इसी मार्ग से लौटने का वचन देता उन,उस वक्त तूं मुझे मार देना| प्रेत ने इसे स्वीकार कर लिया| वर्षों बाद जवान ब्राह्मण जब उस मार्ग से वापस लौटा तो प्रेत उसे एक मकान में ले गया जहाँ मदिरा व मांस रखे थे तथा एक स्त्री व एक बालक था| प्रेत ने ब्राह्मण से कहा तू मदिरा पान, मांस भक्षण, स्त्री के साथ भोग या बालक की हत्या इन चारों में से एक भी कर्म कर लेगा तो मैं तुझे छोड़ दूंगा| यह कहकर प्रेत लुप्त हो गया| ब्राह्मण ने पर स्त्री गमन व बाल हत्या को महापाप समझा तथा मांस भक्षण में उसे हिंसा दिखाई दी अत: उसने सबसे कम दोषयुक्त दिखाई देने वाली शराब का सेवन कर लिया| शराब के सेवन से जाग्रत होने वाली भूख को तृप्त करने के लिए उसने मांस भक्षण किया व काम से पीड़ित होकर स्त्री के पास पहुंचा तो उसने कहा कि पहले बालक की हत्या कर ताकि हमें देखने वाला कोई नहीं रहे| युवक ने बालक की हत्या कर पर स्त्री गमन भी कर लिया| इस प्रकार जिस शुद्ध ब्राहम्ण बालक व शुद्ध ब्राह्मण युवक का प्रेत कुछ नहीं बिगाड़ सका था, उसके दोष युक्त होने पर प्रेत ने उसकी हत्या कर दी|

यह कथा चाहे सत्य हो अथवा प्रतीकात्मक- हमारे लिए यह समझने के लिए पर्याप्त है कि स्थूल जगत में हम निवास कर रहे है से पृथक एक प्राण सृष्टि भी है| जिसमे ऐसे प्राण निवास करते है जो या तो जन्म मरण के बंधन से मुक्त होकर पूर्णरूप से भगवत लीं होने के लिए तपस्या कर रहे है जैसे संत, भोमिया जुझार आदि| दुसरे वे प्राण है जो अकाल मृत्यु को प्राप्त होने के कारण दूसरा जन्म प्राप्त होने तक सूक्षम शरीर सूक्षम जगत में विचरण कर रहे है व भोगों की अभिलाषा से मुक्त होने के कारण जिन लोगों के प्राण मन, बुद्धि, व अहंकार से दबे हुए क्रियाहीन हो रहे है, उनके शरीर में प्रवेश कर भोग भोग रहे है|

आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होने वाले प्राणगत साधना के साधक, जो प्राण के माध्यम से ही अपना मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहता है, के ऊपर ऐसे दुष्ट प्राण जिन्हें हम प्रेत आदि की संज्ञा देते है, जाने अनजाने में शरीर में प्रवेश कर साधक के प्राण को आघात पहुंचाने की नियत से उसे दुष्ट कर्मों को करने के लिए प्रेरित करते है| लेकिन अगर साधक का आहार व्यवहार पवित्र है तो ये दुष्ट प्राण उस पर किसी प्रकार का आघात नहीं कर सकते|

जो श्रेष्ठ "प्राण" सूक्षम जगत में तपस्या में लीन है उनकी भी एक विशिष्ठ भूमिका है| जो सात्विक लोग साधना पथ पर अग्रसर हो रहे है उनका वे मार्ग दर्शन करते है व दुष्ट शक्तियों के आघात से उन्हें बचाते है|

अत:यदि हम आहार व्यवहार में पवित्रता नहीं रख पाते तो एक तरफ हम अपने आपको दुष्ट शक्तियों द्वारा आघात करने के लिए खुला छोड़ देते है, दूसरी और श्रेष्ठ लोगों के मार्ग दर्शन व सहयोग से वंचित होह जाते है क्योंकि श्रेष्ठ शक्तियां पवित्र पात्र पर ही अवतरित होती है |

अध्ययन के प्रति रूचि के अभाव से हमको आज इस बात का बोध नहीं रहा कि प्राचीन काल में मदिरा-मांस का भक्षण श्रेष्ठ लोगों के लिए वर्जित था| बहुत से पंडावादी ग्रंथों में तांत्रिक क्रियाओं के लिए बलिदान आदि की प्रथा बताकर मांस मदिरा के प्रयोग को उचित ठहराने की चेष्टा की गयी है| लेकिन हमें बाल्मिकीय रामायण व महाभारत के समान, अन्य ग्रंथों को स्वीकार नहीं करना चाहिए| यधपि महाभारत के अंतिम भाग अनुशासन पर्व को प्रमाणित कहना कठिन है, फिर भी शेष महाभारत ग्रन्थ एक अद्भुत रचना है, जिसका लाभ सबको उठाना चाहिए| यह दुर्भाग्य कि बात है कि आज हमारे घरों में महाभारत व बाल्मिक रामायण जैसे ग्रन्थ नहीं है| पंडों ने यह प्रचारित कर दिया कि महाभारत ग्रन्थ जो कोई पढ़ेगा, व जिसके घर में यह ग्रन्थ रहेगा उस घर में कलह होगा| यह साड़ी बातें उस बुद्धिजीवी षड्यंत्र का अंग है, जो हमको हमारी परम्पराओं से अलग कर देना चाहते है| जिन्होंने महाभारत ग्रन्थ पढ़ा है, वे शुक्राचार्य के इन वचनों को कभी नहीं भूल सकते-

" जो मंद बुद्धि अपनी ना समझी के कारण मदिरा पीता है, धर्म उसी क्षण उसका साथ छोड़ देता है, वह सभी की निंदा व अवज्ञा का पात्र बन जाता है| यह मेरा निश्चित मत है| लोग आज से इस बात को शास्त्र मान लें और उसी पर चलें|"

इसी प्रकार बाल्मिकिय रामायण में अनेक स्थलों पर मधु मांस भक्षण का निषेध किया है| इन सब तथ्यों की अवहेलना कर आज हमने अपने आहार व व्यवहार को इतना अशुद्ध बना लिया है जिससे हमारे विकास की समस्त संभावनाएं क्षीण हो गयी है|

अत: यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यदि हम अपने आपका व समाज का कल्याण चाहते है तो कुछ सौ वर्षों से आरम्भ हुई आहार व्यवहार की अपवित्रता को हमें समाप्त करना पड़ेगा तथा शुद्ध व सात्विक आहार व्यवहार को अपनाना पड़ेगा| अन्यथा जिन लोगों के मन व बुद्धि पर स्वयं अधिकार नहीं हो उन लोगों से समाज कल्याण की अभिलाषा कौन संजोयेगा तथा अगर कोई ऐसी अभिलाषा रखता है तो वह दुराशा ही सिद्ध होगी|

लेखक : श्री देवीसिंह महार
श्री देवीसिंह जी महार एक क्षत्रिय चिन्तक व संगठनकर्ता है आप पूर्व में पुलिस अधिकारी रह चुकें है क्षत्रियों के पतन के कारणों पर आपने गहन चिंतन किया है यहाँ प्रस्तुत है आपके द्वारा किया गया आत्म-चिंतन व क्षत्रियों द्वारा की गयी उन भूलों का जिक्र जिनके चलते क्षत्रियों का पतन हुआ | |

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