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Nov 14, 2011

हमारी भूलें : विस्तारवादी नीति

नीति व व्यक्तिगत चरित्र अथवा समाज चरित्र में बहुत भेद है| नीति का उपयोग हमेशा दूसरों के लिए किया जाता है| नीति के एक श्लोक का अर्थ है - " ब्राहमण के असंतुष्ट होने पर व क्षत्रिय के संतुष्ट होने पर उसका नाश हो जाता है|" इसका अर्थ हमने यह समझ लिया की क्षत्रिय में विस्तारवाद की प्रवृति हमेशा बनी रहनी चाहिए, जबकि उसका वास्तविक प्रयोजन यह है कि क्षत्रिय को कभी अपनी शक्ति व सामर्थ्य से कभी नहीं रहना चाहिए| भौतिक, मानसिक व अध्यात्मिक तीनों प्रकार की शक्तियों को बढाने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहना चाहिए|

जिन्होंने बाल्मिकिय रामायण पढ़ी है, वे जानते है कि जब श्री राम लंका विजय कर वापस अयोध्या लौटे, उस समय जनक सहित तीन सौ राजा अपनी अपनी सेनाओं के साथ अयोध्या में लंका पर चढ़ाई कारनमे के लिए तैयार थे| कहने का तात्पर्य यह है कि उस समय तीन सौ राज्य थे| अयोध्या के राजा राम के राज्य का क्षेत्रफल कितना रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है कि तीन सौ राज्यों के अलावा भी इस देश का बहुत बड़ा भाग उजाड़ पड़ा था, जिन प्रदेशों को विजयकर श्री राम ने अपने पुत्रों व भाइयों के पुत्रों को राज्य दिए| इन छोटे राज्यों में अगर देवासुर संग्राम में भाग लेने वाले राजा दशरथ, रावण, व मेघनाथ का वध करने वाले राम तथा महान तपस्वी विश्वामित्र व जनक हो सकते है तो फिर राज्यों के विस्तार की व विस्तारवादी निति की क्या आवश्यकता है, जिसके कारन विघटन व विनाश का बीजारोपण होता है? महाभारत के पश्चात् का हमारा इतिहास इस विस्तारवादी निति का ही इतिहास रहा है|

आज राज्य नहीं होने पर भी हमने इस प्रवृति का परित्याग नहीं किया है| एक संगठन दुसरे संगठन को तथा एक नेता दुसरे नेता को हड़प लेने के प्रयत्न में लगा रहता है| जिसके परिणाम स्वरूप समाज में प्रतिभाओं का विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा सामाजिकता भी विकसित नहीं हो पाती है|

अगर हम गंभीरता से विचार करें तो संगठन को हड़पने व दुसरे नेतृत्व को गिराने की किंचित मात्र भी आवश्यकता नहीं है| आज तक जिन संस्थाओं ने भी दूसरी संस्थाओं को हड़पा है, वे हड़पी गई संस्थाओं द्वारा संचालित कार्यक्रमों को कहीं भी सुचारू रूप से नहीं चला सकी| जबकि हडपते समय उन्होंने आरोप यह लगाया था कि इस संस्था के लोग कार्य करने में असमर्थ है तथा सच्चे व इमानदार नहीं है| अत: (हडपने वाले लोग) इस संस्था को सुचारू रूप से चलाएंगे| होता क्या है कि दुसरे के विकास को देखकर हम अपने आपको संशय में डाल लेते है कि कहीं यह संगठन हमको छोटा साबित नहीं करदे| इस आत्म लघुत्व की हीन भावना से ग्रसित होकर हम दुसरे संगठनों पर कब्ज़ा करने के लिए प्रेरित होते है क्योंकि हम नहीं जानते कि समाज इतना विशाल कार्यक्षेत्र है कि एक नहीं हजारों संगठन व लाखों कार्यकर्ता भी जीवन पर्यंत बिना एक दुसरे से टकराए कार्य करते रहें, तो भी कार्य का कभी अंत नहीं आएगा|

यही स्थिति नेताओं के टकराहट के सम्बन्ध में है| हमको अधिक दूर जाने की जरुरत नहीं है| निकट के भूतकाल के इतिहास को देखें, समाज में कितने नेतृत्व उभरे, उनको किन-किन ने गिराने की चेष्टा की और क्या गिराने कि चेष्टा करने वाला व्यक्ति एक भी ऐसे व्यक्ति को पैदा कर सका जिसमे समाज को नेतृत्व देने की क्षमता हो? एसा क्यों नहीं हुआ कारण स्पष्ट है एसा हो ही नहीं सकता| व्यक्ति यह समझता है कि मैं कार्यकर्ताओं को तैयार कर रहा हूँ और इनमे से नया नेतृत्व तैयार होगा| लेकिन हकीकत में वह कभी भी नेता तैयार करने का प्रयत्न ही नहीं करता| वह तो हमेशा ही अनुचरों का ही निर्माण चाहता है| जिस किसी कार्यकर्ता में भी नेतृत्व के गुण विकसित होते नजर आते है, वह उसे शत्रु प्रतीत होने लग जाता है, क्योंकि उसमे अपने प्रतिद्वंदी की शक्ल नजर आने लगती है|

वास्तविकता यह है कि नेताओं का निर्माण नेता नहीं कर सकता| जो लोग समाज के लिए नेतृत्व देने वाले लोगों का निर्माण करना चाहते, उन्हें सबसे पहले स्वयं को नेतृत्व से हटा लेना चाहिए ताकि कार्यकर्ता में उन्हें अपना प्रतिद्वंदी नजर नहीं आये| विश्वामित्र ने राज्य व शस्त्र का परित्याग करके ही समाज को श्रीराम जैसे नेता तथा इसी पद्धति का अनुसरण कर श्री कृष्ण ने अर्जुन जैसा नेता प्रदान किया था| इस परम्परा से पृथक होकर अगर आज हम समाज कल्याण की कल्पना करते है, तो यह वृथा सिद्ध होंगी|

विस्तारवादी प्रवृति व्यक्ति व समाज का सामाजिक विकास दोनों के लिए घटक है| इससे व्यक्ति का विकास व समाज का सामाजिक विकास दोनों ही अवरुद्ध होता है, अत: इसका परित्याग कर व्यक्ति को आत्मनिष्ठ होकर अपनी सम्पूर्ण शक्ति स्वयं के विकास के लिए लगानी चाहिए, ताकि वह न तो दुसरे को अपने से अधिक शक्तिशाली होता हुआ देखेगा और न ही उसके सामने ईर्ष्या करने का अवसर उपस्थित होगा|

लेखक : श्री देवीसिंह महार
श्री देवीसिंह जी महार एक क्षत्रिय चिन्तक व संगठनकर्ता है आप पूर्व में पुलिस अधिकारी रह चुकें है क्षत्रियों के पतन के कारणों पर आपने गहन चिंतन किया है यहाँ प्रस्तुत है आपके द्वारा किया गया आत्म-चिंतन व क्षत्रियों द्वारा की गयी उन भूलों का जिक्र जिनके चलते क्षत्रियों का पतन हुआ |




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