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Dec 25, 2008

गणतंत्र दिवस परेड समारोह में रणथम्भौर के दुर्ग के रूप में सजेगी राजस्थान की झांकी

जयपुर।(भूपेंद्र सिंह चुण्डावत) नई दिल्ली के राजपथ पर 26 जनवरी, 2009 को आयोजित होने वाले गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य समारोह में इस वर्ष राजस्थान की झांकी को रणथम्भौर के दुर्ग के रूप मे सजाया जाएगा। राजस्थानी लोक कला, गौरवशाली इतिहास और समृद्घ संस्कृति को समेटे राजस्थान की यह झांकी गणतंत्र दिवस परेड में लोगों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र रहेगी। इस शानदार झांकी की डिजाईन राजस्थान ललित कला अकादमी के श्री हर शिव शर्मा द्वारा तैयार की गई है।

राजस्थान ललित कला अकादमी के प्रदर्शनी अधिकारी श्री विनय शर्मा ने बताया कि राजस्थान की झांकी के अग्रिम भाग में ग्यारहवीं शताब्दी के राव राजा हमीर सिंह की छतरी दिखाई गई है। झांकी के पश्च भाग को पहाडियों पर स्थित दुर्ग के रूप में सजाया गया है जहाँ टाईगर, हिरण, लंगूर व अन्य वन्य-प्राणियों को विचरण करते हुए दिखाया गया है। उन्होंने बताया कि झांकी के सबसे अग्र भाग में पच्चीस लोक नृत्य कलाकार प्रदेश के प्रसिद्घ ‘‘गैर-नृत्य’’ की जीवन्त प्रस्तुति देगें। उन्होंने बताया कि रक्षा मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी की हाल ही में दिल्ली में हुई बैठक में राजस्थान की उक्त झांकी के मॉडल को अनुमोदित कर दिया गया है।

श्री विनय शर्मा ने बताया कि ‘‘रणथम्भौर’’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘‘रण’’ व ‘‘थम्भौर’’ इन दो शब्दों के मेल से हुई है। ‘‘रण’’ व ‘‘थम्भौर’’ दो पहाडियां है। थम्भौर वह पहाडी है जिस पर रणथम्भौर का विश्व प्रसिद्घ किला स्थित है और ‘‘रण’’ उसके पास ही स्थित दूसरी पहाडी है। रणथम्भौर का किला लगभग सात किलोमीटर के विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है, जहां से रणथम्भौर राष्ट्रीय पार्क का विहंगावलोकन किया जा सकता है।

उन्होनें बताया कि रणथम्भौर दुर्ग भारत के सबसे पुराने किलों में से एक माना जाता है। इस किले का निर्माण सन् 944 ए.डी. में चौहान वंश के राजा ने करवाया था। इस दुर्ग पर अल्लाउदीन खिजली, कुतुबुद्दीन ऐबक, फिरोजशाह तुगलक और गुजरात के बहादुरशाह जैसे अनेक शासकों ने आक्रमण किये। यह मान्यता रही है कि लगभग 1000 महिलाओं ने इस किले में ‘जौहर’ किया था। ‘‘जौहर’’ (जिसके अंतर्गत किलों को अन्य शासक द्वारा जीत लेने पर वहां की निवासी राजपूत महिलाएं अपने ‘शील’ की रक्षा के लिए जलती आग में कूद कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लिया करती थी।)

उन्होंने तथ्यों का हवाला देते हुए बताया कि ग्यारहवीं शताब्दी में राजा हमीर ने और सन् 1558-59 में मुगल बादशाह अकबर ने इस दुर्ग पर अपना अधिकार जमाया था। अंततः यह दुर्ग जयपुर के राजाओं को लौटा दिया गया था, जिन्होंन दुर्ग के आस पास के जंगल को शिकार के लिए सुरक्षित रखा। जंगल के संरक्षण की यही प्रवृत्ति बाद में रणथम्भौर राष्ट्रीय पार्क के अभ्युदय का कारण बनी और आज देश-विदेश से सैलानी यहां बाघ और अन्य वन्य प्राणियों को देखने आते हैं।

उन्होंने प्रदेश के प्रसिद्घ गेर नृत्य के संबंध में बताया कि ‘‘गेर’’ का मूल अर्थ गोले या घेरे से है। चूंकि इस नृत्य का निष्पादन गोले में घूम कर किया जाता है इस लिए इसका नाम ‘‘गेर’’ नृत्य पडा। यद्यपि यह नृत्य सभी समुदायों द्वारा किया जाता है किन्तु मेवाड व मारवाड में यह ज्यादा प्रसिद्घ है। इसे गेर घालना, गेर रमना, गेर खेलना और गेर नाचना भी कहा जाता है।

श्री शर्मा ने बताया कि प्रदेश में सभी जगहों का गैर नृत्य एक जैसा नही होता बल्कि हर स्थान की अपनी अनोखी ताल, घेरा डालने की विशिष्ट शैली व अपनी विशिष्ट वेशभूषा होती है। इस नृत्य के दौरान नृत्यकार सीधी व उल्टी दोनों दिशाओं में धूमर लेते हैं।

रंगीली वेशभूषा में सजे नर्तक चुन्नटों वाला खुला लम्बा स्कर्ट पहनते है। फाल्गुन के महीने में ढोल, थाली और मृदाल की ध्वनि सुनी जा सकती हैं और लोक नर्तक लम्बी छडियों को लिए इनकी ताल में ताल मिलाते हुए परस्पर टकराते देखे जा सकते हैं। जब वे नृत्य करते ह तो युद्घ के मैदान जैसा परिदृश्य दिखाई देता है। लोक मान्यता है कि इस नृत्य का सम्भावित रूप से युद्घों से कोई अनोखा सम्बन्ध रहा होगा।

उन्होंने बताया कि गैर नृत्य की इस अनुपम छटा को प्रदेश के लोक कलाकार प्रदेश की झाँकी के आगे प्रकट करेंगे।

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