पु.स्व.श्री तनसिंह जी की कलम से (बदलते द्रश्य)
छविग्रह में जब में पहुँचा तब चित्र शुरू हो गया था देखने वालों की कमी नही थी किंतु उनमे भी अधिक वे लोग थे जो द्रश्य बनकर लोगों की आंखों में छा जा जाते थे,मै तो आत्मविभोर सा हो गया |
चित्रपट चल रहा था और द्रश्य बदल रहे थे |
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राजा उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव अपने पिता की गोद के लिए ललचाने लगा किंतु सौतेली माँ सुरुचि की डाह का शिकार बन कर तिरस्कृत हो अपनी माँ सुनीति के पास गया और पूछने लगा,माँ ! क्या मेरे पिता भी है जिनकी गोद में दो क्षण बैठकर स्नेह का एक आध कटाक्ष भी प् सकूँ ?
सुनिती कहती है -हाँ बेटा ! तेरे पिता भगवान है जिनके लिए इस संसार की कोई गोद खाली नही होती उन्हें प्रभु की गोद सदेव आमंत्रित किया करती है | और ध्रुव पड़ा घर से घोर जंगलों में,अपने छिपे हुए पिता की खोज में,अकड़ते हुए तूफान उसे झुकाने आए किंतु स्वयम झुक कर चले गए,उद्दंड और हिंसक जंतु आए उसे भयभीत करने के लिए किंतु स्वयम नम्रतापूर्वक क्षमा मांगते हुए चले गए,घनघोर वर्षा प्रलय का संकल्प लेकर आई उसकी निष्ठा को बहाने,किंतु उसकी निर्दोष और भोली द्रढता को देखकर अपनी झोली से नई उमंगें बाँट कर चली गई,कष्ट और कठिनाईयों ने सांपो की तरह फुफकार कर उसे स्थान भ्रष्टकरना चाहा किंतु वे भी पुचकारते हुए उत्साहित कर चले गए | उसे बालक समझ कर नारद लौट जाने का उपदेश देने आए थे मगर गागर में सागर की निष्ठा देखकर भावमग्न हो अपनी ही वीणा के तार तोड़ कर चले गए |
एक दिन ऐसा उगा कि पहाड़ पिघलने लग गए,नदियों का प्रवाह ठोस होकर सुन्न पड़ गया,उसकी तपस्या के तेज से स्वयं सूर्य निस्तेज होकर व्याकुल हो उढे,स्रष्टि के समस्त व्यापार विस्मयविमुग्ध हो हतप्रभ से ठिठक कर रुक गए,और तो और स्वयम जगतपिता का अडिग सिंहासन डगमगाने लगा,क्षीरसागर वेदना से खौल उठा |ब्रह्मा जी ने वेदपाठ बंद कर भगवान कि और देखा और भगवान अपनी गोदी का आँचल पसार कर गरुड़ की सवारी छोड़ पैदल ही दौडे पड़े - "बेटा ! रहने दे | में तेरा पिता हूँ |मुझे नींद आ गई थी | आ,मेरी गोद में बैठ- देख,यह कब से सुनी पड़ी है |"
परन्तु सुरुचि माता के कहने पर आप मुझे धक्का तो नही देंगे ?
नही बेटा,मेरी गोद में तेरा अटल और अचल स्थान रहेगा,जो जन्म-जन्मान्तरों की तपस्या के बाद योगियों और तपस्वियों के लिए भी दुर्लभ है |
पुजारी ने अपने पूज्य को ही पुजारी बना कर छोड़ा | मोह रहित भी मोहित हो गए | निराकार साकार हो गए | मायारहित होकर भी जगत पिता की आंखों में स्नेह के बादल उमड़ आए |
ध्रुव अपने घर लौट रहा था और राह के पेड़ पौधे,लता-गुल्म और पशु पक्षी कह रहे थे -"ध्रुव तुम निश्चय ही एक क्षत्रिय हो |"
उपरोक्त लेख क्षत्रिय युवक संघ द्वारा प्रकाशित और स्व.पूज्य तन सिंह जी,बाड़मेर द्वारा लिखित पुस्तक "बदलते द्रश्य" से आप तक पहुचाने व पु.तन सिंह जी की लेखनी से परिचित कराने के उधेश्य से लिखा गया है