कुछ लोग जिनमें इतिहासकार भी शामिल है जयचंद को हिन्दू साम्राज्य का नाशक कहकर उससे घरना प्रकट करते है | और कुछ उनके पौत्र सीहा जी पर पल्लीवाल ब्राहमणों को धोखे से मार कर पाली पर अधिकार करने का कलंक लगाते है | वास्तव में देखा जाए तो इसे लोग इन कथाओं को "बाबा वाक्य प्रमाणं " समझ कर ,या ‘पृथ्वीराज रासो ' में और कर्नल टोड के " राजस्थान के इतिहास ' में लिखा देख कर ही सच्ची बात मान लेते है लेकिन वास्तविकता पर गौर नहीं करते है |
पृथ्वीराज रासो के अनुसार जयचंद ने वि.स. ११४४ में 'राजसूय यज ' और संयोगिता का स्वंयवर करने का विचार किया, तब प्रथ्वी राज ने विघ्न डालने के उद्देश्य से खोखन्द पुर में जाकर जयचंद के भाई बालुक राय को मार डाला और बाद में संयोगिता का हरण कर लिया, इससे लाचार होकर जयचंद को युद्घ करना पडा | यह युद्घ ११५१ में हुआ | उसके बाद पृथ्वीराज संयोगिता के मोह पाश में बंध गया और राज कार्य में शिथिल पड़ गया | इन्ही परिस्थितियों को कर शहाबुद्धीन ने देहली पर फिर चढाई की |पृथ्वीराज सेना लेकर मुकाबले में आ गया | इस युद्ध में शहाबुद्धीन विजयी हुआ | पृथ्वीराज पकडा गया | और गजनी पहुँचाया गया जहा पर शहाबुद्धीन और पृथ्वीराज दोनों मारे गए | कुतुबुद्धीन उनका उत्तराधिकारी बना | कुतुबुद्धीन ने आगे बाधा करा कनौज पर चढाई की जयचंद युद्ध में मारा गया | और मुसलमान विजयी हुए |
इस उपरोक्त कथा में जिस यज्ञ व स्वयंवर का वर्णन किया है उसके बारे में जयचंद के समय की किसी भी प्रशस्तियो मे नहीं है | जयचंद के समय के १४ ताम्र पात्र और २ लेख मिले है इनमें अंतिम लेख वि.स. १२४५ का है | रासो मे जिस संयोगिता के हरण की बात कही गयी है वह काल्पनिक है क्यों की इसका उल्लेख ना तो पृथ्वीराज के समय बने ‘पृथ्वीराज विजय महाकाव्य’ मे ही मिलता है और न ही वि.स. की चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध मे बने ’हम्मीर महाकाव्य’ मे ही मिलता है इसी हालत मे इस कथा पर विश्वास करना अपने आप को धोखा देना है रासो मे शहाबुद्धीन के स्थान पर कुतुबुद्धीन का जयचंद पर चढाई करना लिखा है | परन्तु फारसी तवारिखो के अनुसार यह चढाई शहाबुद्धीन के मरने के बाद न होकर उसकी जिन्दगी मे हुयी थी| स्वय शहाबुद्धीन ने इसमें भाग लिया था उसकी मृत्यु वि.स. १२६२ मे हुयी थी इसके अलावा किसी भी फारसी तवारिखो मे जयचंद का शहाबुद्धीन से मिल जाना नहीं लिखा है |
यदि ‘रासो’ की सारी कथा सही भी मान ले तब भी उसमे संयोगिता हरण के कारण जयचन्द का शहाबुद्धीन को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने का निमंत्रण देना या उससे किसी प्रकार का सम्पर्क रखना कही भी लिखा हुआ नही मिलता है । इसके विपरीत उसमे स्थान स्थान पर पृथ्वीराज को परायी कन्याओ का अपहरणकर्ता बताया गया है । जिससे उसकी उद्दण्डता ,उसकी कामासक्ति का वर्णन होने से उसकी राज्य कार्य में गफ़लत ,उसके चामुण्ड राय जैसे स्वामी भक्त सेवक को बिना विचार के कैद में डालने की कथा से उसकी गलती ,और उसके नाना के दिए राज्य में बसने वाली प्रजा के उत्पीड़न से कठोरता ही प्रकट होती है | इसी के साथ उसमे पृथ्वीराज के प्रमाद से उसके सामंतो का शहाबुद्धीन से मिल जाना भी लिखा है |
एसी हालत मे विचार शील विद्वान स्वंय सोच सकते है कि जयचन्द को हिन्दू साम्राज्य का नासक कह कर कलंकित करना कहाँ तक न्यायोचित है ।
रासो के समान ही ‘आल्हाखण्ड’मे भी संयोगिता के स्वयंवर का किस्सा दिया हुआ है । परंतु उसके रासो के बाद की रचना होने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उसके लेखक ने रासो का ही अनुसरण किया है इस लिये उसकी कथा पर भी विश्वास नही किया जा सकता है ।
जयचंद कनौज का अन्तिम हिन्दू प्रतापी राजा था | उसने ७०० योजन (५६०० मील) भूमि पर विजय प्राप्त की | जयचंद नेअनेक किले भी बनवाये थे इन में से एक कनौज में गंगा के तट पर ,दूसरा असीई ( जिला इटावा) में यमुना के तट पर ,तीसराकुर्रा में गंगा ले तट पर - शेष अगले भाग में |
सौजन्य से - (राठौङो का इतिहास लेखक विश्वनाथ रेवु )