Bhupendra Singh Chundawat
राजपूताने में यह जनश्रुति है कि एक दिन बादशाह ने बीकानेर के राजा रायमसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज से, जो एक अच्छा कवि था, कहा कि राणा प्रताप अब हमें बादशाह कहने लग गए है और हमारी अधीनता स्वीकार करने पर उतारू हो गए हैं। इसी पर उसने निवेदन किया कि यह खबर झूठी है। बादशाह ने कहा कि तुम सही खबर मंगलवाकर बताओ। तब पृथ्वीराज ने नीचे लिखे हुए दो दोहे बनाकर महाराणा प्रताप के पास भेजे-
पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूंतां बयण।
हिमर पछम दिस मांह, ऊगे राव उत॥
पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज जन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक॥
आशय : महाराणा प्रतापसिंह यदि अकबर को अपने मुख से बादशाह कहें तो कश्यप का पुत्र (सूर्य) पश्चिम में उग जावे अर्थात जैसे सूर्य का पश्चिम में उदय होना सर्वथा असंभव है वैसे ही आप के मुख से बादशाह शब्द का निकलना भी असंभव है। हे दीवाण (महाराणा) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूं अथवा अपनी तलवार का अपने ही शरीर पर प्रहार करूं, इन दो में से एक बात लिख दीजिये।
इन दोहों का उत्तर महाराणा ने इस प्रकार दिया-
तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछा पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ तिस केवाण॥
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर स्वाद।
भड़ पीथल जीतो भलां, बैण तुरब सूं बाद॥
आशय : भगवान एकलिंगजी इस शरीर से तो बादशाह को तुर्क ही कहलावेंगे और सूर्य का उदय जहां होता है वहां ही पूर्व दिशा में होता रहेगा। हे वीर राठौड़ पृथ्वीराज जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है तब तक आप अपनी मूछों पर खुशी से ताव देते रहिये। राणा सिर पर सांग का प्रहार सहेगा, क्योंकि अपने बराबरवाले का यश जहर के समान कटु होता है। हे वीर पृथ्वीराज तुर्क के साथ के वचनरूपी
विवाद में आप भलीभांति विजयी हों।
यह उत्तर पाकर पृथ्वीराज बहुत ही प्रसन्न हुआ और महाराणा की प्रशंसा में उसका उत्साह बढ़ाने के लिये उसने नीचे लिखा हुआ गीत लिख भेजा-
नर जेथ निमाणा निलजी नारी,
अकबर गाहक बट अबट॥
चौहटे तिण जायर चीतोड़ो,
बेचै किम रजपूत बट॥
रोजायतां तणें नवरोजे,
जेथ मसाणा जणो जाण॥
हींदू नाथ दिलीचे हाटे,
पतो न खरचै खत्रीपण॥
परपंच लाज दीठ नह व्यापण,
खोटो लाभ अलाभ खरो॥
रज बेचबा न आवै राणो,
हाटे मीर हमीर हरो॥
पेखे आपतणा पुरसोतम,
रह अणियाल तणैं बळ राण॥
खत्र बेचिया अनेक खत्रियां,
खत्रवट थिर राखी खुम्माण॥
जासी हाट बात रहसी जग,
अकबर ठग जासी एकार॥
है राख्यो खत्री धरम राणै,
सारा ले बरतो संसार॥
आशय : जहां पर मानहीन पुरूष और निर्लज स्त्रियां है और जैसा चाहिये वैसा ग्राहक अकबर है, उस बाजार में जाकर चित्तौड़ का स्वामी रजपूती को कैसे बचेगा। मुसलमानों के नौरोज में प्रत्येक व्यक्ति लूट गया, परन्तु हिन्दुओं का पति प्रतापसिंह दिल्ली के उस बाजार में अपने क्षत्रियपन को नहीं बेचता। हम्मीर का वंशधर अकबर की लाानक दृष्टि को अपने ऊपर नहीं पड़ने देता और पराधीनता के सुख के लाभ
को बुरा तथा अलाभ को अच्छा समझकर बादशाही दुकान पर राजपूती बेचने के लिए कदापि नहीं आता। अपने पुरुखाओं के उत्तमर् कत्तव्य देखते हुए आप ने भाले के बल से क्षत्रिय धर्म को अचल रक्खा, जबकि अन्य क्षत्रियों ने अपने क्षत्रियत्व को बेच डाला। अकबररूपी ठग भी एक दिन इस संसार से चला जाएगा और उसकी यह हाट भी उठ जाएगी, परन्तु संसार में यह बात अमर रह जायेगी कि क्षत्रियों के धर्म में रहकर
उस धर्म को केवल राणा प्रतापसिंह ने ही निभाया। अब पृथ्वी भर में सबको उचित है कि उस क्षत्रियत्व को अपने बर्ताव में लावें अर्थात राणा प्रतापसिंह की भांति आपत्ति भोग कर भी पुरुषार्थ से धर्म की रक्षा करें।