हर सिक्के के दो पहलु है |इसी तरह इस संपूर्ण सृष्टि में भी हर वस्तु,हर चीज के के दो पहलु है |यहाँ अच्छाई है तो बुराई भी है,यहाँ अमृत है तो ,बिष भी है, यहाँ आदि है तो अंत भी है,जीवन है तो मृत्यु भी है|कडुवा है तो मधुर भी है ,आग भी है तो पानी भी है |अर्थात प्रत्येक चीज के दो पहलु है, यह स्वयंसिद्ध है |अब एक और भी बात है कि ,यही सब विपरीत चीजे मनुष्य के मानस पटल पर भी दोनों पहलु है ,|मानस-पटल पर न्याय है तो अन्याय भी है,धर्मं है तो अधर्म भी है ,सत्य है तो असत्य भी है ,कडुवाहट और मधुरता भी है |दोनों तरह की प्रवृतिया मानस-पटल पर हर समय होती है |अच्छाई युक्त प्रवृतियों को अमृतमयी प्रवृतिया और बुराई-युक्त प्रवृतियों को बिष-मयी प्रवृतिया कहते है|और इन दोनों प्रवृतियों में सतत:संघर्ष होता रहता है |यह संघर्ष "श्री गुलाब कोठारी जी" ने अपनी कृति "मानस-३" में "संघर्ष" नाम से बड़े रोचक एवं तथ्य-परख तरीके से व्यक्त किया है |संघर्ष के बिना सृष्टि आनंद-मयी नहीं होसकती क्योंकि इस समुद्र-मंथन जैसे संघर्ष के बाद अमृत-रूपी आनंद प्राप्त होता है |सृष्टि के अस्तीत्व के लिए इन दोनों प्रवृतियों का अस्तीत्व भी आवश्यक है |बिष-मयी प्रवृतिया जिने आसुरी प्रवृतिया भी कहा जाता है पतन के मार्ग पर लेजाती है है ,और अमृत-मयी प्रवृतिया जिन्हें दैवीय गुण या प्रवृतिया भी कहा जाता है उत्थान की ओर लेजाती है | जैसे कि पतन की यानि नीचे की ओर जल की गति स्वत: होती है, उसे किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती है, वैसे ही आसुरी प्रवृतियों (बिष- मयी प्रवृतियों )का उपार्जन नहीं करना पड़ता, यह तो स्वत:ही हमारे मानस-पटल पर छाजाती है | और उत्थान की यानि जल को ऊपर की ओर चढाने के लिए कठिन प्रयास करने पड़ते है, तब कहीं जाकर जल ऊपर चढ़ पता है वो भी धीमी गति से, वैसे ही अमृत-मयी प्रवृतियों और दैवीय गुणों का उपार्जन बड़ी कठिनाई से करना पड़ता है | इस प्रकार के कठिन प्रयासों का ही नाम ही तपस्या है,| मन के अन्दर जो स्वत;विकार पनप जाते है ,और यदि उन पर नियंत्रण नहीं किया जाये तो वह पूरे मानस-पटल को बिष-मयी प्रवृतियों से घेर लेते है ,तथा हमारा मन पतन की ओर अग्रसर हो जाता है |मनुष्य का शारीर नौ-द्वारो वाली एक स्थूल काया है ,जोकि पाँच महाभूत (आकाश,वायु,अग्नि,पृथ्वी और जल),के कारण बनता है ,जिसमे पाँच ज्ञानेन्द्रिया(श्रोत्र,त्वचा,चक्षु,जिव्हा एवं,घ्राण),पाँच कर्मेन्द्रिया,( वाक़,हस्त,पाद,पायु,उपस्थ) ग्यारहवां उनका स्वामी मन,पाँच विकार(शब्द ,स्पर्श, रूप ,रस,एवं गंध ) ,बुद्दी,अहंकार और अव्यक्त परा प्रकृति प्राण इस प्रकार कुल चौबीस होते है | इस स्थूल शरीर से ,इन्द्रिया बलवान है ,तथा इन्द्रियों से मन बलवान है ,मन से ज्यादा बुद्धि बलवान है और बुद्धि से ज्यादा अव्यक्त परा-प्रकृति प्राण है ,| शरीर एक रथ है, जिसमे इन्द्रिया अश्व है ,तथा मन सारथि है ,प्राण रथी है | यदि अश्वो (इन्द्रियों) पर सारथि(मन) का कब्ज़ा हो और सारथि (मन),रथी (प्राण) के आदेशानुसार घोड़ो (इन्द्रियों) को वश में रखे तो मंजिल (मोक्ष) आसानी से तय की जा सकती है |शारीर के क्षेत्र में निंतर युद्ध होता रहता जहाँ अमृत-मयी,पुण्य-मयी,दैवीय प्रवृतियों का बिष-मयी,पाप-मयी,आसुरी-प्रवृतियों के साथ निरंतर युद्ध होता रहता है |जिसमे पुण्य-मयी,अमृत-मयी,दैवीय प्रवृतियों की रक्षा के लिए प्राण अपना रथ लेकर सहायता के लिए उपस्थित होता है |,जिससे आसुरी-प्रवृतियों को नियंत्रित किया जाता है और इनसे दैवीय प्रवृतियों का अस्तीत्व बना रहता है| किन्तु जब प्राण कमजोर पड़ जाता है तो मन का रुख इन्द्रियों की तरफ हो जाता है ,और इन्द्रियों पर मन यानि सारथि का कोई कब्ज़ा नहीं होता जिससे प्राण पुण्य-मयी दैवीय प्रवृतियों की रक्षा नहीं कर माता परिणाम होता है मनुष्य का पतन,..,,,|इस प्राण से ही शारीर कि समस्त कार्य प्रणाली संचालित होती है | इस प्राण के कमजोर होने पर पूरा शारीर का पतन यानि क्षत होना निश्चित है |प्राण के द्वारा शारीर त्याग देने के बाद मृत्यु हो जाती है |
इस प्राण का निवास स्थान है हृदय, जहाँ पर प्राण और आत्मा दोनों रहते है | मुझे यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि क्षत्रिय कि उत्पत्ति भी ह्रदय से ही हुई है जैसा कि सभी उपनिषद एवं शास्त्र कहते है | देखिये बाल्मीकि रामायण में चारो वर्णों कि उत्पत्ति के विषय में उल्लेख है कि :-
"मुखतो ब्राहमण! जाता, ,उरस:क्षत्रियास्तथा !
ऊरुभ्यां जज्ञिरेवैश्या:पद्भ्यां शूद्रा इति श्रुति !30!"
' अरण्य कांडे-चतुर्दश-सर्ग'
महाभारत के कर्ण पर्व अध्याय-१३ के ३२ वे श्लोक को देखे :--
" ब्राह्मणा ब्रह्मणा सृष्टा मुखात्क्षत्रमथोरस: !
ऊरुभ्याम स्रुज्द्वैश्यान्शुद्रन्पदभ्यामिति श्रुति: ! ३२!"
इसी लिए जो गुण प्राण का है वही गुण क्षत्रिय का भी है |जो स्वभाव प्राण का है वही क्षत्रिय का भी है |जिस प्रकार प्राण शारीर के अन्दर मानस-पटल पर चल रहे संघर्ष में पुण्य-मयी,दैवीय-प्रवृतियों कि रक्षा के लिए उपस्थित है ठीक उसी तरह बाहरी सृष्टि जो कि निरंतर युद्ध में रत है |जहाँ अच्छाई का बुराई से ,धर्मं का अधर्म से , पुण्य का पाप से ,सत्य का असत्य से ,न्याय का अन्याय से ,अर्थात अमृत का बिष से,पुण्य-मयी,दैवीय प्रवृतियों का पाप-मयी आसुरी-प्रवृतियों से निरंतर युद्ध चलता रहता है |जिसमे दुसरे प्रकार कि प्रवृतिया पहले प्रकार कि पुण्य-मयी प्रवृतियों का दबा लेता है |तब यह बिष मयी दानवी शक्तिया इस सृष्टि को महा विनाश जिसे क्षय कहा जाता है की ओर धकेल देती है | इस क्षय (विनाश) से त्राण(रक्षा) करने के लिए क्षात्र-तत्त्व ही है, जोकि आसुरी प्रवृतियों और शक्तियों को नियंत्रित कर इस सृष्टि का अस्तीत्व बनाये रख कर पुन: सत्य,धर्मं,न्याय,एवं अमृत की स्थापना करता है | अब यह तो कोई नहीं कह सकता कि इस सृष्टि से आसुरी प्रवृतिया स्थायी रूपसे समाप्त हो गयी है या होजायेंगी ,क्योंकि यह सृष्टि द्वन्दात्मक है और दोनों ही प्रवृतियों का अस्तीत्व रहेगा |और जब तक दोनों प्रवृतियों का अस्तीत्व है, तब तक क्षात्र-धर्मं की आवश्यकता बनी रहेगी | फिर यह कौन मुर्ख है ,जो कह रहा है कि" समय बदल गया है ,और अब क्षात्र-धर्मं बीते युग यानि इतिहास की बात रह गयी है"?? आज जितना अधर्म,असत्य और अन्याय का बोलबाला है उतना तो इतिहास में कभी रहा ही नहीं था |आज सत्य अपने अस्तीत्व के लिए छटपटा रहा है ,न्याय तो अन्याय के ढेर में कही दब कर रह गया है |धर्मं तो अपनी अंतिम श्वांश ले रहा है| तो फिर आज तो सर्वाधिक आवश्यकता है क्षात्र-धर्मं की | जिस प्रकार यह अटल सत्य है की यह सृष्टि निरंतर युद्धरत है, तो यह भी अटल सत्य है कि उस क्षत्रिय की भी निरंतर आवश्यकता है |जिस प्रकार एक शारीर प्राण के बगेर क्षत हो जाता है, उसी प्रकार यह सृष्टि भी प्राण-तत्त्व से उत्पन्न क्षात्र-धर्मं के बगेर क्षत यानि विनाश यानि पतन को प्राप्त हो रही है |अत: अब यह सभी प्रबुद्ध नागरिक ,मनीषी,साधू-जन एवं समस्त मानव-जाति का परम कर्तव्य है कि "क्षात्र-धर्मं को पुनर्स्थापित कर इस सृष्टि को समस्त चर-अचर जीवो के रहने योग्य बनाया जा सके" |
" जय क्षात्र-धर्मं "
"कुँवरानी निशा कँवर नरुका "
श्री क्षत्रिय वीर ज्योति
एक वीर जिसने दो बार वीर-गति प्राप्त की |
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