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Jun 29, 2011

हमारी भूलें : तपस्या का अभाव

आज लोग संघठन बनाकर समाज का कल्याण करना चाहते हे | वे यह भी अभिलाषा संजोते है कि समाज का नेतृत्व प्रदान कर सकेंगे लेकिन वे यह नहीं जानते कि लोगों को अपनी बात सुनाने व उनके विचारों व भावों को गति देने के लिए उन लोगों से ऊपर उठना आवश्यक है |
अपने आप को बदलने के लिए व्यक्ति को अच्छी संगत जिसका तात्पर्य है , अपने से श्रेष्ठ लोगों कि संगत करना आवश्यक है , क्यों कि " कच्ची सरसों को पेलकर कोई भी तेल निकलने कि कल्पना नहीं कर सकता " | अगर तेल चाहिए तो उसके पहले सरसों को पकाना पड़ेगा | इसलिए सबसे पहली आवश्यकता है कि श्रेष्ठ साहित्य का सानिध्य प्राप्त किया जावे , जिसकी संगती से हम परंपरागत कुसंस्कारों से मुक्त रह सके |
आज हम जिसे धर्म समझे हुए है , उसी ने हमारा सर्वनाश किया है | पुराणों में लिखा है कि एक मंदिर बनवा देने पर कई हजार वर्ष तक स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है | मृतक के पीछे अगर उसका पुत्र अमुक प्रकार से दान देदे तो मृतात्मा कि मोक्ष हो जाती है | संसार का कोई भी समझदार व्यक्ति इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण धर्म को अंगीकार नहीं कर सकता किन्तु हमने इस प्रकार के धर्म को अंगीकार करके अपने आपको पतित बना लिया है | अगर बिना तपस्या केये किसी प्रकार कि उपलब्धि संभव होती तो पूर्वगामी लोग इस कठिन मार्ग को क्यों चुनते ? इस बात पर हमने कभी विचार करने का कष्ट नहीं किया |
राम कृष्ण परमहंस कहते है कि जो तोता जीवन पर्यंत " टें , टें " बोलता है , बिल्ली द्वारा गला दबोच लेने पर भी " राम राम "नहीं बोल सकता | हमें पंडावादी धर्म ने यह समझा दिया है कि भगवत भजन वृद्धो का कार्य है | जो राम कृष्ण के वचनानुसार कभी संभव नहीं हो सकता |
अगर हम हमारे पूर्व काल के इतिहास को देखें तो पता चलेगा सभी श्रेष्ठ लोगों ने अपने जीवन के आरम्भकाल में तपस्या कि है व भगवत आदेश प्राप्त कर राज्य का संचालन किया है | " विचार व प्रेरणा " जिनका आज के जगत में बहुत महत्व बताया जा रहा है , वास्तव में पशुगत क्रियाएं है | क्योंकि बुद्धि का जन्म , पूर्व जन्मों के पुण्यों से व अहंकार का जन्म , पूर्व जन्म के पापों से होता है | इस बुद्धि व अहंकार के संयोग से मन कि उत्पति होती है यह मन , बुद्धि व अहंकार द्वारा प्रस्तुत तर्कों को सुनकर संकल्प विकल्प करता है | अतः विचार पूरी तरह से हमारे पूर्व संस्कारों से प्रभावित रहते है | प्रेरणा भी कोई स्वतः उत्पन्न होने वाली क्रिया नहीं है , , उस पर भी संस्कारों का अभाव कायम रहता है | अतः श्रेष्ठ लोग विचार व प्रेरणा का आश्रय लेकर किसी प्रकार का निर्णय नहीं लेते | उन्हें चाहिए आदेश , स्पष्ट रूप से दिव्य शक्ति का संकेत , की तेरे कल्याण के लिए अमुक मार्ग उपयुक्त है | इस प्रकार का संकेत केवल तपस्या के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है |
तपस्या की शीघ्र सफलता के लिए सबसे पहली आवश्यकता है , पूर्वाग्रहों का अभाव | ऐसे होना चाहिए , अथवा ऐसे नही होना चाहिए | इन दोनों ही अभिलाषाओं से मुक्त हुए बिना तपस्या फलीभूत नहीं हो सकती | महर्षि विश्वामित्र ने कई हजार वर्ष तक तपस्या करने के पश्चात जिस स्थिति को प्राप्त किया , उसी स्थिति को बालक ध्रुव ने केवल ६ माह में प्राप्त कर लिया संसार में आज तक इन दोनों जैसा तपस्वी नहीं हुआ , लेकिन ध्रुव की शीघ्र सफलता का जो रहस्य था , वह यह था ही वह किसी प्रकार के दुराग्रह से पीड़ित नहीं था | उसकी अभिलाषा केवल भगवत आदेश प्राप्त करने की थी , लेकिन विश्वामित्र बदला लेना चाहते थे , अतः जब तक उनके मन से बदले की कडुवाहट की मलीनता साफ़ नहीं हुई , उन्हें सफलता नहीं मिली | ध्रुव को भगवान् ने आदेश दिया की तुम १२ हजार वर्ष राज्य करो , उसके बदले तुम मेरे लोक को प्राप्त होगे | इसी प्रकार के एक नहीं , हजारों आख्यान शास्त्रों में हे , की लोगों ने तपस्या कर भगवत आदेश से राज्य किया , लेकिन आज हम तापहीन बने रहकर बिना कष्ट उठाये केवल बोद्धिक तिकड़म बाजी से अपना हित साधन करना चाहते है , तो इससे बढ़कर मुर्खता और कोई नहीं हो सकती |
आज का बुद्धिजीवी जिसने समग्र तंत्रों पर अपना आधिपत्य जमा रखा है , इतना षड्यंत्रकारी है की उसे किसी भी षड्यंत्र से परास्त नहीं किया जा सकता | अगर उसे परास्त करना है तो एक ही मार्ग है , तपस्या , इष्टबल | भगवत आदेश के द्वारा जो शक्ति उपार्जित होती है , उसके सामने किसी भी प्रकार का बुद्धिजन्य षड्यंत्र नहीं चल सकता |अतः आवश्यकता इस बात की है कि संघठनो के निर्माण के साथ साथ प्रत्येक व्यक्ति पाखंडवाद को पीठ देकर सात्विक रूप से भगवत आराधना में लगे , ताकि वह उस आत्मबल को प्राप्त कर सके , जिससे लोगों को एक सूत्र में बांधे रखने कि क्षमता अर्जित हो , साथ ही बुद्धिजीवियों के षड्यंत्र को विशाल किया जा सके |
बिना तपस्या के कोई भी शोर्य से युक्त व पराक्रमी होने कि कल्पना नहीं कर सकता | दुर्योधन के जब अनेक महारथी महाभारत के युद्ध क्षेत्र में मारे गए , तो उसने पितामह भीष्म को उत्तेजित कर उनसे यह प्रतिज्ञा करवाने में सफलता अर्जित कर ली कि " कल अर्जुन का वध कर दिया जाएगा |"
भीष्म की इस प्रतिज्ञा की खबर जैसे ही पांडवों के पड़ाव में पहुंची , तो वहां पर हाहाकार मच गया , क्योंकि सभी जानते थे की भीष्म की प्रतिज्ञा कभी विफल नहीं हो सकती | लोग दौड़े हुए श्री कृष्ण के पास पहुंचे व अपनी व्यथा सुनाई | श्री कृष्ण का उत्तर था -" अब अर्जुन को द्रोपदी के अलावा कोई नहीं बचा सकता " | लोगों को विस्मय हुआ , लेकिन द्रोपदी को बुलाया गया | कृष्ण द्रोपदी को लेकर पितामह भीष्म के डेरे की और रवाना हुए | संध्या का समय था , पितामह अपने ध्यान में मग्न थे | कृष्ण के संकेत पर द्रोपदी ने जैसे ही जाकर पितामह के चरण स्पर्श किये , पितामह के मुख से आशीर्वाद निकला " सौभाग्य वती हो "| पितामह के इन शब्दों को सुनकर श्री कृष्ण हंस पड़े | पितामह को सारे खेल को समझने में एक ही क्षण लगा | उन्होंने श्री कृष्ण को सम्भोधित करते हुए कहा कि " आपने मेरी प्रतिज्ञा छल से भंग कराइ है , लेकिन कल युद्ध क्षेत्र में मै अपने पराक्रम से आपकी प्रतिज्ञा को भंग करूँगा |" कृष्ण ने प्रतिज्ञा कर राखी थी कि वे युद्ध में अस्त्र नहीं उठाएंगे | दुसरे रोज अर्जुन व भीष्म पितामह के बीच घमासान युद्ध हुआ | जब श्री कृष्ण ने देखा कि भीष्म के बाणों कि वर्षा को अर्जुन सहन करने में असमर्थ हो रहा है , तब वे क्रोधित हो गए | वे चक्र लेकर पितामह पर आक्रमण करने दौड़े | यह देखकर पितामह ने धनुष त्याग दिया | उन्होंने कहा " मेरी प्रतिज्ञा पूरी हुई |"
अपने आपको पितामह भीष्म के वंशज कहने वाले लोग यदि अपनी तुच्छ इच्छाओ का परित्याग नहीं कर सकते व तपस्या के मार्ग पर अग्रसर नही हो सकते , तो उन्हें समाज का कल्याण करने कि बात कहने का कोई नैतिक अधिकार नही है | शौर्य का बीज परम्परा से मिल सकता है लेकिन इसका उपार्जन बिना कर्म के नही किया जा सकता | कितना शौर्य व उत्साह उस तपस्वी में होगा जिसने कृष्ण को साक्षात् भवान जानते हुए ललकार कि " कल युद्ध क्षेत्र में मै आपकी प्रतिज्ञा कि भंग करूँगा ," व अपनी कथनी को चरितार्थ करके दिखा दिया |
तापहीन ज्ञानी हमेशा समाज का शोषण करता है | अगर हम तपस्या से रहित रह कर किसी प्रकार से बुद्धिबल का उपार्जन भी कर लें तो समाज का शोषण करने के अलावा और कोई शुभ कार्य करने कि कल्पना नहीं कर सकते |

लेखक : श्री देवीसिंह महार
क्षत्रिय चिन्तक


श्री देवीसिंह जी महार एक क्षत्रिय चिन्तक व संगठनकर्ता है आप पूर्व में पुलिस अधिकारी रह चुकें है क्षत्रियों के पतन के कारणों पर आपने गहन चिंतन किया है यहाँ प्रस्तुत है आपके द्वारा किया गया आत्म-चिंतन व क्षत्रियों द्वारा की गयी उन भूलों का जिक्र जिनके चलते क्षत्रियों का पतन हुआ | इस चिंतन और उन भूलों के बारे में क्यों चर्चा की जाय इसका उत्तर भी आपके द्वारा लिखी गयी इस श्रंखला में ही आपको मिलेगा |

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