एक ही समाज में कार्यरत एक संगठन के लोग दूसरे संगठन द्वारा संचालित अच्छे कार्यक्रमों में भाग लेने से क्यों कतरातें है? क्योंकि उन्होंने स्वयं ही अपने चरों और सीमा रेखाएँ खीच ली है, जिनमे वे अपने आपको बंधा हुआ अनुभव करते है| जीन लोगों में बुद्धि द्वारा लोगों का उत्पीडन कर स्वार्थ साधन करने की क्षमता अधिक है, वे इन बंधनों को आस्था, विश्वास व श्रद्धा की संज्ञा देकर अपने पक्ष में लोगों की शक्ति का उपयोग करने में सफलता अर्जित कर लेते है| जो लोग इस प्रकार के उत्पीडन में सहायक सिद्ध होते है वे यह जानते हुए भी कि हम बुरे काम में सहायक रहे है कुछ कर पाने में अपने आपको असमर्थ अनुभव करते है, क्योंकि वे स्वयं द्वारा निर्मित जाल में खूद ही फंस गए है|
अत: यदि किसी समाज को उन्नत होना है तो उसे संस्थानों, विधानों, नियमों आदि से ऊपर उठकर केवल श्रेष्ठता उपार्जित करने वे श्रेष्ठ कार्यों में सहयोग करने के दृष्टिकोण से सोचना व समझना पड़ेगा| फिर चाहे ऐसे कार्य किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा चलाये जा रहें हो| व्यक्ति पहले बंधनों का निर्माण स्वयं के कल्याण की कल्पना करके करता है, लेकिन बाद में स्वयं उसमे बंधकर दूसरों के हाथ की कठपुतली मात्र बनकर रह जाता है| सतत चिंतन और मनन द्वारा यदि व्यक्ति इस बात की खोज कर्ता रहे कि उसे क्या करना चाहिए तो कोई भी बंधन उसके विकास को रोक नहीं सकेगा|
लेखक : श्री देवीसिंह महार
क्षत्रिय चिन्तक व संगठनकर्ता