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Dec 8, 2011

हमारी भूलें : उत्साह व उत्सव विहीन जीवन

क्षात्र-धर्म वीरों का है| हिंदी साहित्य का जिन्होंने अध्यन किया है, वे जानते है कि वीर रस का स्थाई भाव उतशाह है| अर्थात जिस काव्य में आदि से अंत तक निरंतर उतशाह बना रहे,उसी रचना को विर रस से परिपुर्र्ण कहा जायेगा|

आज लोग अपने आप को क्षात्र धरम के अनुयाई या धारणा करने वाले कहते है, लेकिन उनके जीवन में कही बी इस जीवन कि झलक नजर नहीं आती है| मुरझाये हुए चेहरे,टूटे हुए दिल वे लड्खडाते कदम क्षत्रिय कि पहचान नहीं है |यदि उन लक्षणों से युक्त लोग अपने आप को क्षात्र धर्म के प्रचारक या क्षत्रियोचक विचारों के साधक कहते है तो ये मात्र उनके मन का धोका है| ऐसे लोग मात्र अपने अपने अहंकार कि तुस्टी के लिए अपने आपको व् समाज को धोके में डाले हुए है|

कहावत है “भावित व् राजपूती किसी के बाप कि नहीं है|” वास्तविकता तो यहे है कि राजपूती और भक्ति दो अलग अलग वस्तुवें है ही नहीं| भक्ति कि पराकाष्ठा का नाम ही राजपूती या क्षत्रियत्व है|
उनके प्राप्त करने के लिए निरास व् हताश साधको कि आवशकता नहीं है| क्यूंकि ऐसे लोग इस लक्ष्य को जीवन में कभी नहीं प्राप्त नहीं कर सकेंगे |इस मार्ग पर चलने कि लिए हक़दार तो वे ही लोग हो सकते है जिन्होंने जीवन को सदेव एक उत्सव के रूप में बिताने का अभ्यास कर लिया है|

मुग़ल काल के आरंभ तक हमारे समाज के पास वह संजीवनी शक्ति थी,जिस से लोगो के जीवन में उत्साह भंग ही नहीं होता था| यही कारण था कि एक हजार वर्ष तक लगातार आकराअंताओं से व् बार बार पराजित होने के बाद भी, हमने पराजय सुविकार नहीं कि | अंतिम हिंदू सम्राट प्रथ्वीराज चोहान के प्रमुख सामंत पंजवनराय को जब नागौर में समाचार मिला कि मोहमद गौरी अपनी विशाल सेना के साथ दिल्ली कि और बढ़ रहा है तो उन्होंने मात्र पांच हजार सैनिकों के साथ गौरी पर आक्रमण किया गौरी कि सेना भाग कड़ी हुई और उनको बंदी बना किया गया

आई समर साकेत में,पीड करी पज्जौन|
गोरी सम गोरी अनि,गई लजत भजि भौन||


उत्साह वीरता की पराकाष्टा है| परिस्थितियों की विषमता या परिणामों का भय उसे रोक नहीं सकता| लोग आज अपने आपको अधिक बुद्धिमान समझने लगे है| हर चीज के परिणाम के बारे में आश्वस्त होना चाहते है| यही से कायरता का जन्म होता है| सुरक्षा की गारंटी मांग कर, न तो आज तक संसार में किसी ने महान उद्देश्यों की प्राप्ति की है न ही ऐसे लोग भविष्य में कोई उपलब्धि कर सकेंगे|

पितामह भीष्म के अनुसार फल की इच्छा रखने वाला ही कृपण है| कृपणता व कायरता समान गुण धर्म वाले शब्द है| फल की अभिलाषा से ही अथवा फल की और ध्यान देने पर ही कायरता का उदय होता है| अर्जुन ने युद्ध से उत्पन्न होने फल को देखकर ही धनुष डाल दिया था| जब कृष्ण ने उसे लताड़ा, तो उसने कहा था, “मैं कृपणता जन्य दोष से ग्रसित हो गया हूँ| अत: आप मुझे शिष्य की तरह स्वीकार कर मेरा मार्गदर्शन करें|” जहाँ फल की अभिलाषा है, वहां उत्साह निरंतर नहीं रह सकता, क्योंकि परिस्थितियों के वेग में जब फल में विध्न उपस्थित होता दिखाई देता है, तो उत्साह भंग होता दिखाई देता है| फल की इच्छा से मुक्त हुए बिना कोई भी स्थायी रूप से उत्साह को अपने अंदर स्थापित नहीं कर सकता| कहावत है कि- “ सदा दिवाली संत के आठों पहर उछाह”, जिसने इच्छाओं का परित्याग कर दिया है, उसका ही जीवन सर्वदा उत्साह व उत्सव से परिपूर्ण रह सकता है| कर्मयोगी क्षत्रिय के लिए आसक्ति से रहित होकर कर्म करना ही फल का सर्वोत्तम त्याग बताया गया है| इस तत्व को पुन: उपार्जित करने का जब तक हम प्रयास नहीं करेंगे, निराशा हमारा पीछा नहीं छोड़ सकती|

जब समाज ने जीवन में उत्साह को उपार्जित करने व उत्सवमय जीवन बिताने की कला खो दी तो उसे पुन: प्राप्त करने की चेष्टा के बजाय, कृत्रिम तरीके खोजने लगे व इसी भूल के कारण जन्म हुआ नशीले पदार्थों का सेवन का व बिडदावली गाने का| ऐसे लोग हो गए जिनका वंश परम्परागत यही कार्य रहा कि वे युद्धों के अवसर पर वीर रस से परिपूर्ण कवितायेँ सुनाकर, सैनिकों को युद्ध के लिए प्रेरित करते थे| ऐसे आयोजनों के आविष्कारकों ने यह नहीं सोचा कि कोई भी शक्ति जब शरीर में कृत्रिम रूप से आरोपित की जाती है, तो उसका अंतिम परिणाम यह होता है कि उसकी अवधि समाप्त हो जाने पर शरीर व जीवन में शिथिलता व घोर निराशा का जन्म होता है| तथा ऐसे उपाय बार बार किये जाये तो उनसे शरीर पूरी तरह से निकम्मा बन जाता है|

हमारे समाज ने का, से कम पांच सौ वर्षों तक इसी प्रकार के कृत्रिम उपायों का आश्रय ले, अपने आपको वीर साबित करने की चेष्टा की, जिसके फलस्वरूप समाज शरीर का प्रत्येक अंग शिथिल व हृदय निराशायुक्त हो गया|
आज लोग सभाओं व संगठनों के द्वारा इस निष्क्रिय शरीर में जीवन फूंकने की चेष्टा कर रहे है| लोग समझते है कि पूर्वजों के गीत व गाथाएँ सुनाने पर, इस शरीर में पुन: जीवन जागृत होगा, क्योंकि वे नहीं जानते कि जो प्रयोग वे आज करना चाहते है, उसी प्रयोग ने आज समाज की शक्ति को नष्ट किया है| कृत्रिम उपाय कभी दीर्घजीवी नहीं हो सकते| अत: यदि हम वास्तविक रूप में अपना व अपने समाज का कल्याण चाहते है तो हमें पुन: उसी उत्साह व उत्सवपूर्ण जीवन को उपार्जित करना पड़ेगा| यह कार्य कठिन अवश्य है , लेकिन यही एक मात्र उपचार है| इसलिए जो लोग कल्याण चाहते है, उन्हें इस मार्ग पर और केवल इसी मार्ग पर आगे बढ़ना होगा|

प्राण शक्ति को जागृत करने व जीवन में उत्साह का संचार करने के कई साधन है, जैसे प्रकृति के साथ एकता व सामंजस्य स्थापित करना| इसको और स्पष्ट किया जावे तो यों कहा जा सकता है कि ईश्वर की सृष्टि से समीपता स्थापित करना व व्यक्ति द्वारा निर्मित सृष्टि से दुरी को अनुभव करना होगा| पहाड की छोटी या बालू रेत के टीबे पर बैठकर, प्रकृति की गोद में झूमकर, हम जीवन को उत्साह से भर सकते है| समुद्र की लहरें व चाँद की चांदनी, हमारे हृदयों में स्नेह की धारा बहा सकती है| इसीलिए मनुस्मृति में उल्लेख है कि जब क्षत्रिय का राज्य नष्ट हो जाए तो उसे खेती को अपनाना चाहिए ताकि वह प्रकृति के निकट रहे व अपने स्वाभाविक गुणों को खो न दे| ऐसे ही और भी अनेक साधन हो सकते है, लेकिन यह साधन मात्र स्फूर्तिदायक है| जीवन में सतत उत्साह की धारा प्रवाहित हो व जीवन एक उत्सव बन जाए, उसके लिए हमको इससे भी आगे बढ़ना होगा, तब ही हम उस मूल तत्व को उपार्जित कर सकेंगे, जिसको हम खो चुके है|

क्षत्रियों की साधना सबसे सरल व पूरी तरह से परीक्षित है| सृष्टि की उत्पत्ति "शब्द" से हुई है| इसलिए इसके रहस्यों को समझने के लिए सबसे पहले 'शब्द' का ही आश्रय लेना पड़ेगा,जिसको आज की भाषा में हम 'जप' कहते है| इस प्रक्रिया के आरम्भ व स्थिर हो जाने के बाद हमको आत्म परिचय करना होगा| आत्म परिचय से प्रायोजन है "मै कौन हूँ" इस विषय पर बार बार व निरंतर विचार करते रहना,जिससे हमे यह विश्वास हो जाए कि न तो यह संसार ही निरर्थक है और न ही हमारी मुसीबतें| जो कुछ हो रहा है,यह सब हमारे कल्याण के लिए है| जब इतनी अनुभूति हो जाए तो हम दृष्टा बनने की सामर्थ्य अर्जित कर सकेंगे| 'मै कर नहीं रहा हूँ' मात्र ऐसे विचार से कर्तापन की भावना का लोप नहीं हो सकता| इसका लोप तब ही होगा,जब आत्मपरिचय के द्वारा हमारा,हमारे 'प्राण' से सम्बन्ध जुड़ेगा व हम यह समझने लगेंगे कि जो लोग हमारे साथ है,वे अकारण नहीं है|उनका पहले से सम्बन्ध चला आ रहा है| यह जीवन एक धरा है,जिसमे स्वभावतः सब लोग आगे बढ़ रहे है| इस कार्य के सम्पादन में मनुष्य की भूमिका नगण्य है| इस समझ के उदय होने पर ही व्यक्ति दृष्टा बनकर जीवन के समस्त कर्मों को कर सकेगा|लेकिन यहाँ पर पहुंचकर भी जीवन में कभी नष्ट होने वाले उत्साह की उत्पत्ति नहीं होती| इसलिए भक्त जहाँ इस स्थिति को पराकाष्टा समझता है,वहीँ क्षत्रिय उसको नकारता है| वह कहता है, 'अभी कार्य पूरा नहीं हुआ'| अर्जुन की तरह मुझे आदेश चाहिए श्री कृष्ण का 'तुम युद्ध मै प्रवृत हो जाओ'

व्यक्ति जो अपने जीवन के समस्त कर्म भगवान के आदेश प्राप्त कर संपादित करता है,उसके जीवन में क्या कभी उत्साह भंग हो सकता है? इस भौतिक संसार में भी यदि कोई उद्योगपति अपने छोटे श्रमिक को,अथवा एक अच्छा अधिकारी अपने छोटे कर्मचारी को,किसी छोटे कार्य करने के लिए कहता है तो वह उसे अपना अहोभाग्य समझता है तथा कृतज्ञता व उत्साह से भर जाता है| आदेश की इतनी महिमा जब भौतिक जगत में हो,तो आध्यात्मिक जगत में विचरण करने वाला तुच्छ प्राणी सर्वशक्तिमान से आगेश प्राप्त कर ले तो क्या वह कृतज्ञता से भर नहीं जायेगा? क्या उसके जीवन में उत्साह का उदभव नहीं होगा?जो जीवन पर्यंत कभी क्षीण नहीं हो| क्या उसका जीवन उत्सव नहीं बन जाएगा?अवश्य बनेगा,इसी प्रकार के उत्सवमय जीवन को जब क्षत्रिय भोगते थे,तभी उनकी यश पताकाएं संसार पर लहराती थी| यदि आज भी किसी को अपनी वंश परम्पराओं पर गौरव है और यदि कोई समझता है कि उस गौरवमयी परम्परा को नष्ट होने से बचाना है,तो उसे अपनी भूल सुधार कर जीवन से पुनः उत्साह का उपार्जन करना ही होगा|

यह साधना की लम्भी प्रक्रिया है| अतः इसमें लगे रहने के साथ व्यक्ति को सुकर्मों में प्रवृत होकर व प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखकर अपने उत्साह को पुनर्जीवित करने की चेष्टा भी सतत रूप से करते रहना चाहिए,जिससे न केवल उसको कठिनाइयों को पार करने में सहायता मिलेगी,बल्कि मूल लक्ष्य की प्राप्ति में भी सहायता मिलेगी|

लेखक : श्री देवीसिंह महार

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