जब पंडावाद की आलोचना की जाती है तो उसका तात्पर्य ब्राह्मणों की आलोचना से नहीं है, बल्कि उस समस्त वर्ग की आलोचना से है, जो धर्म के नाम पर धर्म की जड़ों पर कुठाराघात कर, अपने व्यक्तिगत या वर्ग गत हित साधन में लगा हुआ है|
इस देश में वर्णों की स्थापना वंश परम्परा के आधार पर कभी नहीं हुई, बल्कि वर्णों की स्थापना उनकी साधना पद्धति के आधार पर निर्मित थी| ब्राहमण उस वर्ग का नाम था जिनके पास मनोगत साधना व मनोनिग्रह की श्रेष्ठ साधना पद्धति थी| इसी प्रकार क्षत्रिय का वह वर्ग था, जिसके पास “हृदयगत साधना” या प्राण से संपर्क साधने की श्रेष्ठ साधना पद्धति थी|
लोग, कौन श्रेष्ठ है, इसको सिद्ध करने के लिए लड़ रहे है, क्यों कि वे नहीं जानते कि श्रेष्ठता का कोई माप-दंड नहीं हो सकता| जो पूर्ण है, बस केवल पूर्ण ही है| न वह इससे कम हो सकता है और न ही इससे अधिक| लेकिन जैसे जैसे ब्राहमण व क्षत्रियों का स्तर गिरता गया, वे पूर्णता को परित्याग कर अपूर्णता की गर्त में जा गिरे| उन्होंने अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने की चेष्टाएं आरम्भ की और इन चेष्टाओं ने उन्हें ईर्ष्या, द्वेष, व अहंकार से पीड़ित कर और भी नीचे गिरा दिया| आज का ब्राह्मण और क्षत्रिय जो अपनी आराधना पद्धतियों को पूरी तरह से भूल चूका है, कृत्रिम मदिरा के नशे में मद मस्त गटर की नाली में पड़ा हुआ, मैं श्रेष्ठ हूँ, चिल्ला रहा है व् लोग इस पागलपन को देखकर हंस रहे है| क्योंकि वे जानते है कि न तो ये ब्राहमण या क्षत्रिय है और न ही श्रेष्ठ है|
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम हमारी वास्तविक साधना व आराधना पद्धति को खोजकर उसके साधन से अपने आप में श्रेष्ठता अर्जित करें| आज विभिन्न धर्मों के लोग अपने धर्म ग्रंथों के आधार पर अपने धर्म की श्रेष्ठता स्थापित करने में लगे हुए है| क्या वे नहीं जानते कि आज सभी देशों व सभी धर्मावलंबियों के पास सभी धारों के धर्म ग्रन्थ उपलब्ध है| यही ग्रंथों में ही श्रेष्ठता होती तो आज सारा संसार ही श्रेष्ठ हो गया होता| श्रेष्ठता समाज का धर्म नहीं है| यह व्यक्ति का धर्म है| व्यक्ति ही श्रेष्ठता का उपार्जन कर सकता है| जिस समाज में श्रेष्ठ व्यक्ति है, वही समाज श्रेष्ठ समाज कहलाता है| अत: यदि कोई समाज बिना श्रेष्ठता का उपार्जन किये ग्रंथो या पुरखों के आधार पर अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने की चेष्टा करता है, तो इसे उसकी निरी मूर्खता कहा जायेगा|
मैक्समुलर ने वेदों को छपवाया जो आज समस्त संसार में उपलब्ध है, लेकिन इससे संसार का कोई विकास तो नहीं हुआ और न ही जर्मनी के लोग जगद्गुरु कहलाने की क्षमता अर्जित कर सके|
संसार के लोग आज भी आध्यात्मिक क्षेत्र में मार्ग दर्शन के लिए भारत की और देखते है, जिसका कारण यहाँ के धर्म ग्रन्थ नहीं है बल्कि वे गिने चुने श्रेष्ठ पुरुष है जो गली कूचों में बैठे श्रेष्ठ ब्राहमण व क्षत्रिय आराधना पद्धतियों को जीवित रखे हुए है| उनको इस बात की कतई चिंता नहीं है कि कोई उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर रहा है या नहीं अथवा कोई उन्हें श्रेष्ठ स्वीकार करता है या नहीं क्योंकि श्रेष्ठता का कोई माप दंड नहीं हो सकता| श्रेष्ठता को केवल श्रेष्ठता ही पहचान सकती है|
आज लोग धर्म की रक्षा करने व धर्म ग्रंथों की रक्षा करने की बात कहकर अपनी दुकानदारियां चलाना चाहते अहि, लेकिन जो लोग धर्म के तत्व को जानते है, उनके मुख से एसी कोई बात कभी नहीं सुनी गयी| क्योंकि वे जानते है कि प्रत्येक तत्व व बीज की रक्षा का कार्य प्रकृति स्वयं करती है| जिसे व्यक्ति द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता| अत: यह कहना भी भ्रान्ति फैलाना है कि मार्ग दर्शन का अभाव हो गया है| जिसके पास आँखें है, वह उनका उपयोग कर स्वत: ही मार्ग को देख सकता है, मार्ग की खोज कर सकता है, लेकिन जिनमे खोज करने की चाह ही नहीं है, उनका कोई मार्ग दर्शन करना भी चाहे तो नहीं कर सकता|
इस प्रकार स्पष्ट है कि श्रेष्ठता स्थापित करने की न तो कोई आवश्यकता है और न ही कोई उपयोगिता| आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम श्रेष्ठता का उपार्जन करें|
लेखक : श्री देवीसिंह महार
श्री देवीसिंह जी महार एक क्षत्रिय चिन्तक व संगठनकर्ता है आप पूर्व में पुलिस अधिकारी रह चुकें है क्षत्रियों के पतन के कारणों पर आपने गहन चिंतन किया है यहाँ प्रस्तुत है आपके द्वारा किया गया आत्म-चिंतन व क्षत्रियों द्वारा की गयी उन भूलों का जिक्र जिनके चलते क्षत्रियों का पतन हुआ |