कुँवरानी निशा कँवर नरुका
जिस प्रकार हर नदी का एक ही भाव है की वह सागर की अथाह गहराईयों में समां जाये उसी प्रकार प्रत्येक जीव का एक ही एक भाव है कि वह परम तत्त्व (आत्मा ) में अपने को समां दे,विलीन कर दे |किन्तु मनुष्य जीवन या मानव योनी के बगेर यह बहन ही नहीं रहता कि आखिर जीव का लक्ष्य है क्या ?क्योंकि मानवेत्तर योनी में तो विवेक और ज्ञान की उपस्थिति ही नहीं होती जानवर तो केवल प्रेरणा से कार्य करते है "जैसे भूंख लगी तो भोजन की तलाश शुरू,यह भूंख की प्रेरणा से कार्य करते है |जबकि मनुष्य योनी में हमारे पास विवेक और ज्ञान जैसे चीजों के बल पर हमे हमारा यानि जीव का वास्तविक भाव ,धर्म और लक्ष्य को पहिचानने का अवसर मिलता है |किन्तु हम इन्द्रियों के वशीभूत हुए अपने मन की कुचालो में फंश जाते है |और यह मन जो स्वयं इन्द्रियों के वशीभूत होचुका होता है इन्द्रियों के सुख के लिए प्राण के मूल स्वभाव (अपना भाव) यानि "अध्यात्म" के विपरीत आचरण करने लगता है |अब सवाल उठता है की यह अध्यात्म क्या है ? गीता के ८ वे अध्याय के पहले ही श्लोक में अर्जुन ने प्रश्न किया है की अध्यात्म क्या है और श्री कृष्ण ने उन्हें बताया की "स्व-भाव" ही अध्यात्म है |यानि की आत्मा की अधीनता ,या यों कहें कि जीव या प्राण द्वारा आत्मा की और भावना को ही अध्यात्म कहते है |प्राण इन्द्रियों के वशीभूत हुए मन के दुष्चक्र को छोड़ आत्मा की और उन्मुख होता है उसे अध्यात्म कहते है | जब यह प्राण (जीव) मन के अनुसार सुख की खोज में निकल पड़ता है तो चलिए सुख या आनंद के लिए ही सही |अब मानव अपने पुरे जीवन को केवल सुख के लिए समर्पित कर देता है |वह प्रातः काल उठने से लेकर रात्रि काल विश्राम तक केवल बाहरी सुख को प्राप्त करने के लिए अपने आपको समर्पित कर देता है |किन्तु क्या यहाँ भी उसका एक प्रकार से लक्ष्य सुख,फिर और सुख और फिर सबसे अधिक सुखी या दुसरे शब्दों में स्थायी सुख जिसे परम सुख या परम आनंद कहते है को प्राप्त करना नहीं होजाता है |अब सवाल यह उठ खड़ा होता है की स्थायी सुख या परम आनंद आखिर है क्या ?क्या भोतिक सुख सुविधाए ,और आमोद-प्रमोद के साधन स्थायी सुख पैदा कर सकते है ? निश्चित रूपसे यह स्थायी सुख नहीं बल्कि क्षणिक सुख और फिर दुःख के दायक होते है |तो फिर स्थायी सुख या परम आनंद कहाँ मिएगा और कैसे मिलेगा और कौन उस सुख को प्राप्त कर सकता है ?यह प्रशन हर जेहन में जरुर उभरेगा |आज चारो ओर मिडिया से लेकर साधू-संतो तक में भोली जनता को इस गूढ़ विषय के बारे में भरमाये जारहा है |प्रातः काल बड़े सवेरे से लेकर गहरी रात्रि तक ज्यादा-तर टी० वि० चेनलों पर जो अपने आपको धार्मिक और अध्यात्मिक न जाने किन किन नामो से नवाजते रहते है पर चिल्ला-चिल्ला कर अपने उत्पादनों को धर्म और आध्यात्मिकता के पेपर में लपेट कर बेचने की प्रक्रिया चल पड़ी है |सभी सत्य को खोज लेने का दावा कर रहे है और "परम आनंद " को प्राप्त करने के अनेक रश्ते बताये जारहे है |यह अलग बात है की उन राष्टो पर शायद वे स्वयं न कभी चले है और न ही चल सकते है |किन्तु भोली जनता जरुर ठगी जारही है |अब सवाल यह उठता है की परम आनंद कहाँ मिलेगा ,कैसे मिलेगा और कौन उसे प्राप्त कर सकता है ?पहले हम इस बात पर चर्चा करते है की परम आनंद कहाँ मिलेगा और कैसे मिलेगा ?तो इस बात में तो सभी एक मत है की परम आनंद तो केवल "निर्विकल्प समाधि" यानि परम तत्त्व में सम्मिलन ,यानि मोक्ष में ही मिल्सकता है |किन्तु कैसे मिलेगा ,में सभी अलग अलग मत रखते है ,किन्तु यह अटल सत्य है कि इन्द्रियों से मन को स्वतन्त्र कराना होगा और प्राण का स्वस्थ मन पर शासन स्थापित करना होगा | चूँकि इन्द्रियों के विषयो से युद्ध कर उने परास्त कर मन को अपने नियंत्रण में लेना होगा |यानि मन जो कि इन्द्रियों के विषयो से विवश है कि रक्षा प्राण(जीव) को करनी होगी |और जहाँ विवश कि रक्षा की बात हो तो क्षात्र-धर्म के पालक की आवश्यकता होगी |अतः परम आनंद तो क्षात्र-धर्म के पालन के द्वारा ही प्राप्त किया जासकता है | इसीलिए ज्ञात इतिहास में आज तक क्षत्रिय के अतिरिक्त किसी को भगवत-पद या मोक्ष नहीं मिल सकी है |यह अलग बात है कि शास्त्रों में जोड़-तोड़ कर घपला बजी कर कुछ क्षत्रिय ऋषियों को ब्रह्मण सिद्ध करने का सफल प्रयास किया गया है |अब मै यहाँ छान्दोग्य उपनिषद का एक उदहारण प्रस्तुत करना चाहूंगी जिसमे वास्तविक क्षत्रिय यानि असली क्षत्रिय कि पहिचान बताई गयी है |
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" वास्तविक क्षत्रिय कौन है ?असली क्षत्रिय वही है जो मन से आंतरिक युद्ध लड़े,इन्द्रियों के विषयों से विवेक और दृढ इच्छा शक्ति के द्वारा लड़े और मन को पूरी तरह से नियंत्रण में कर ले |असली क्षत्रिय वह है जी रज,तम ,कुत्सित विचार और कुत्सित संस्कारों से लड़े,अपने अन्दर सतो गुण का विकास करे और उसे जागृत करे |असली क्षत्रिय वह है जिसका शास्त्र है उसकी दृढ इच्छा शक्ति और अस्त्र है उसका विवेक :उसका युद्ध-क्षेत्र उसी के भीतर है |विवेक,वैराग्य और मुमुक्षत्व जैसे गुण उसकी ढाल है| -छान्दोग्य उपनिषद
इससे यह बात साबित होती है कि जीवन का चाहे भोतिक सुख हो ,या वास्तविक सुख परम आनंद यानि मोक्ष यह क्षात्र-धर्म के बगेर संभव ही नहीं है |फिर हम क्यों धर्म के नाम पर खुली अलग-अलग दुकानों के चक्कर काट कर अपना शारीर,श्रम ,समय और धन का अपव्यय करते फिरते है |श्री कृष्ण से बड़ा गुरु किसे खोजते फिर रहे हो ?श्री गीता से श्रेष्ट किस ग्रन्थ की तलाश है ?और इन दोनों में पुरजोर तरीके से कहा गया है कि
"श्रेयानाम स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्टितात !
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह : !! 35!! तीसरा अध्याय
भली प्रकार आचरण किये गए दूसरे के धर्म ,गुण रहित अपना कल्याणकारी है |अपने धर्म का पालन करते हुए तो मरना भी कल्याणकारक है ,जबकि दूसरे का धर्म तो भय को देने वाला होता है |
"श्रेयानाम स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्टितात !
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम !!४७!!अठारहवा अध्याय
भली प्रकार आचरण किये गए दूसरे के धर्म ,गुण रहित अपना कल्याणकारी है |स्वभाव से नियत किये हुए कर्म अर्थात वर्नाधार्मानुसार नियत कर्म कर्ता हुआ ,मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता है |
"सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत !
सर्वारम्भा हि दोषेण धुमेनाग्निरिवावृता !!४८!!अठारहवा अध्याय
हे अर्जुन दोषयुक्त भी जन्म के साथ उत्पन स्वधर्म को नहीं त्यागना चाहिए !,निश्चित ही धुवाँ से अग्नि की भांति सभी कर्मो का आरंभ तो दोष से ढका हुआ है !
यदि हम आस्तिक है और यह मानते है कि ईश्वर या प्रकृति का कोई नियंत्रक है तो निश्चित रूपसे किसी प्राक्रतिक और अध्यात्मिक कारण से ही हमारा जन्म हमारे माता-पिता के घर हुआ है |जिस प्रकार हमें अपनी जननी और जनक को स्व-माता और स्व-पिता मानने में हर्ष और अनुकूलता महशूश होती है |वैसे ही स्वधर्म में अपने को समर्पित करने में अनुकूलता प्राप्त होती है | इसलिए गीता में उल्लेखित उस क्षात्र -धर्म के पालन में ही हमे भौतिक और अध्यात्मिक दोनों ही लक्ष्य पूरे हो सकेंगे |
"जय क्षात्र-धर्म "
कुँवरानी निशा कँवर नरुका
श्री क्षत्रिय वीर ज्योति