आज हम हमारी भूलों पर विचार करने के लिए तैयार है | उस कार्य को आत्मनिंदा या परनिंदा के द्रष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए , क्योंकि आत्मचिंतन करते समय व्यक्ति व समाज को उन समस्त परिस्थितियों पर विचार करना पड़ता है , जिनके अंदर से गुजरने का समाज को अवसर मिला , उस समय जो भी त्रुटियाँ रही उनका विवेचन आत्म चिंतन ही कहा जायेगा और इस कार्य को किये बिना कोई भी पुनरोत्थान कि कल्पना नहीं कर सकता |
आत्म चिंतन कर अपनी भूनों को निकलना , उन्हें स्वीकार करना व भविष्य में उनसे बचे रहने की चेष्टा करना अत्यंत दुष्कर कार्य है | मानव स्वभाव अपने आपको दोषी स्वीकार करने का अभ्यस्त नहीं है | दोष को स्वीकार करने से उसके अहंकार पर आगात लगता है | समय के साथ व्यक्ति व समाज कुछ मान्यताओं में अपने आपको बाँध लेता है , जिनमे सदा सदा के लिए व अपने आपको दंधे रखने में सुख का अनुभव करता है , व इन मान्यताओं के विरुद्ध यदि कोई व्यक्ति कुछ बोलता है या कहता है तो ऐसा व्यक्ति उसे शत्रु-वत प्रतीत होता है | इस प्रकार आत्म चिंतन का मार्ग अत्यंत कठोर कार्य है |
आत्म चिंतन का आरम्भ करते हुवे विचारक को सबसे पहले अपने ही विचारों से संघर्ष करना पड़ता है | उन पर विजय प्राप्त करने के बाद जैसे ही वह अपना मुख समाज के सामने खोलने की चेष्टा करता है | उसको समाज के विद्रोह का सामना करना पड़ता है | क्योंकि लम्बे समय तक चले आने वाले कार्य संस्कारों का रूप धारण कर लेते है , तथा कमजोर व विकृत विचार भी संस्कारों का बल पाकर अपने आप को बलवान समझने लगते है | यद्यपि ऐसे विचार समय के द्वारा तिरस्कृत होकर सर्वथा त्यागने के योग्य सिद्ध होते है फिर भी व्यक्ति व समाज केवल रूढ़ी ग्रसिता के कारन उनको छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता |
वर्तमान काल में जब हम समाज व उनके नेतृत्व की और दृष्टि डालते है | तो समाज को पूर्ण रूप से पंगु व नेतृत्व की और दृष्टि डालते है | तो समाज को पूर्ण रूप से पंगु व नेतृत्व से विहीन पाते है | क्षत्रिय व क्षत्र धर्म का नारा देकर समाज को एकत्रित व संघठित करने का अनीक बार , अनेक प्रकार से , अनेक लोगों ने प्रयास किया है , किन्तु सामजिक परिस्थितियों , समाज के अभावों , व पतन करने के कारणों का विवेक सम्मत विश्लेषण करने का प्रयास लगभग नगण्य रहा है |
सन् १९४७ में क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना समाज चिंतन के दृष्टिकोण से इस युग की एक एतिहासिक घटना है | जहाँ पर बैठ कर लोगों ने सामजिक दृष्टिकोण से सोचने व अपनी कमियों को देखने का कार्य आरम्भ किया | स्वर्गीय तनसिंह जी व आयुवान सिंह जी ने समाज चिंतन को जागृत करने व उसे आगे बढ़ाने में जो महत्वपूर्ण योगदान किया , उसके लिए समाज को उनका कृतज्ञ रहना चाहिए | किन्तु खेद का विषय यह है की समाज चाहे कठिनाई से ही तैयार हों लेकिन नए विचारों को स्वीकार कर उनको पीछे चलने के लिए तो तैयार हो जाता है लेकिन आत्म चिंतन का मार्ग अपनाने से हमेशा कतराता रहता है | इसी का परिणाम आज हमारे सामने है |
जिन नवीन विचारों ने नई दिशा दृष्टि को उन विचारों को सृजित किता था , उसको आगे बढ़ना तो दूर रहा , उन्ही विचारों को विचार क्रान्ति के रूप में परिवर्तित करने में समाज के कार्यकर्ता पूर्ण रूप से असफल रहे है |
विचार एक धारा है | धारा का धर्म सतत गतिशील रहना है | इस धर्म को जो स्वीकार नहीं करते उसे हम धारा नहीं कह सकते | इसीलिए विचार से अधिक महत्व विचार धारा को दिया जाता है | एक विचार को स्वीकार कर , उस पर स्थिर हो जाना किसी समय विशेष में उपयोगी सिद्ध हो सकता है | किन्तु समय बीतने पर ऐसे लोग रूढ़िवादी ही कहे जायेंगे | विचार का प्रायोजन ही निरंतर विकास की और आगे बढ़ना है | यदि विचार में गति नहीं है तो वह विचार , उसको धारण करने वाले व्यक्ति के विनाश का हेतु होगा | पितामह भीष्म का मत है , कि जिस प्रकार मिट्टी को पीसते रहने पर उसके बारीक होने का क्रम जारी रहता है , उसी प्रकार विचार को गतिशील बनाये रखने से ज्ञान सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता चला जाता है | इस क्रम का कहीं अंत नहीं होता |
क्रमश:.................
क्षत्रिय चिन्तक
श्री देवीसिंह जी महार एक क्षत्रिय चिन्तक व संगठनकर्ता है आप पूर्व में पुलिस अधिकारी रह चुकें है क्षत्रियों के पतन के कारणों पर आपने गहन चिंतन किया है यहाँ प्रस्तुत है आपके द्वारा किया गया आत्म-चिंतन व क्षत्रियों द्वारा की गयी उन भूलों का जिक्र जिनके चलते क्षत्रियों का पतन हुआ | इस चिंतन और उन भूलों के बारे में क्यों चर्चा की जाय इसका उत्तर भी आपके द्वारा लिखी गयी इस श्रंखला में ही आपको मिलेगा |