हम समाज जागरण व समाज कल्याण के हेतु इतिहास के अध्ययन की बात भी कहते हे,लेकिन कटु वास्तविकता यह हे कि आज क्षत्रिय समाज नाम कि कोई वस्तु अस्तित्व में नहीं है| समाज पूर्ण रूपेण छिन्न भिन्न होकर व्यक्तियों में विभाजित हो चूका है| आज प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को अमाज समझता है व समाज का ठेकेदार बनता है| जो कोई व्यक्ति उसके अनुकूल रहने कि बात करता है,समाज सेवी है,तथा जैसे ही उसके आचरण में व्यक्ति के प्रति अनुकूलता आती है,उसे हम समाज द्रोही घोषित कर देते है| सम्माज के सामने व्यक्ति यदि समर्पित नहीं हो तो समाज कि रचना संभव नहीं है|
आज हमारे व्यक्तिगत अहंकार ने समाज को छिन्न भिन्न कर दिया है| अतः वास्तविकता यह रह गई है कि न कोई समाज है और न समाज चरित्र| ऐसी अवस्था में हम को समाज के इतिहास का अध्ययन करने के बजाय हमारे व्यक्तिगत इतिहास का अध्ययन करना चाहिए |ताकि हम कुछ समझ सके|
अपने आप के इतिहास को देखना,उसे पढना,व उस पर मनन करना अत्यंत कठिन कर्म है| इस कर्म को यदि हम निरंतर बढाते चले तो यह कार्य और अधिक कठिन होता चला जाता है| फिर भी कठिनाई कि परवाह किये बिना इस मार्ग पर यदि हम निरंतर बढ़ते चले तो एक रोज व्यक्तिगत इकाइयां समाप्त हो जायेगी व समाज चरित्र का निर्माण अवश्य होगा|
आखिर व्यक्ति का इतिहास है क्या? हम प्रत्येक क्षण को व्यतीत करते जा रहे है| यह बिता हुआ क्षण ही हमारा इतिहास है|
क्या हम विचार करने के लिए तैयार है कि इस बीते हुए क्षण में हमने किसे व क्यों नीचा दिखाने कि चेष्टाएँ कि थी?क्या हम यह भी सोचने के लिए तैयार है कि इस बीते हुए क्षण में हमने जिन आदर्शों की बात की,उनका निर्वाह हमने पिछले क्षणों में किया है,व भविष्य में आने वाले क्षणों में करेंगे? अगर इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो उत्तर नकारात्मक मिलेगा|
मनुष्य मौत से डरता क्यों है? निर्भयता,जो क्षत्रिय के लिए आवश्यक हे,का उपार्जन कैसे किया जा सकता है? जो मौत से डरता है,वह इंसान भयमुक्त नहीं हो सकता| मौत से डरने का कारण हमारा व्यक्तिगत इतिहास है| मौत की कल्पना आते ही हमारे सामने वे सारे कुकर्म आकर खड़े हो जाते है,जिनको हमने समाज से छिपाकर किया है| अगर किसी व्यक्ति ने अपने व्यक्तिगत इतिहास का अध्ययन किया हो व वास्तव में वह निर्दोष रहा हो तो मौत से उसे भय क्यों होगा? सच्चे व्यक्ति को सच्ची अदालत में जाने से क्या भय हो सकता है?
हम अपने आप से व एक दुसरे से भयभीत है| क्योंकि हम जानते है की हम आदर्शों की बात कर उनके विरुद्ध एक दुसरे पर आघात करने की चेष्टा करते है| त्याग के स्थान पर हमने स्वार्थ साधन किया है| समाज को अधिक देने के नाम पर हम सबसे अधिक प्राप्त करने की चेष्टा करते रहे| तब फिर निर्भरता व क्षत्रियोचित गुणों का विकास आखिर कैसे होगा?
इस जीवन के हमारे व्यक्तिगत इतिहास का हम स्मरण कर सकते है| वह सम्पूर्ण नहीं तो प्रमुख घटनाएं हमे अवश्य याद है, जिनके आधार पर हम अपना विश्लेषण कर अपनी कमियों को पहचान सकते है,उन्हें हटाकर उनके स्थान पर अच्छाइयों का सृजन कर सकते है|
लेकिन अपने इतिहास का अध्ययन यहीं समाप्त नहीं होता| इससे भी हमे आगे बढ़ना होगा| यदि हम हमारे वास्तविक शत्रुओं व मित्रों की खोज करना चाहते है,तो हमे विचार करना होगा कि इस जीवन से पहले भी क्या यह स्थूल शारीर हमारे साथ था? तो उत्तर मिलेगा नहीं? तब हमे विचार आएगा कि क्या हमारा सूक्ष्म शारीर यानी मन,बुद्धि,अहंकार भी इस जीवन से पूर्व हमारे साथ था? तो भी उत्तर मिलेगा नहीं| क्योंकि सूक्ष्म शारीर का निर्माण प्रारब्ध के आधार पर होता है| उन पाप पुण्यों के आधार पर जिनका हमे इस जीवन में भोग करना है| तब फिर सवाल उठता है कि जब में स्थूल शारीर भी नही हूँ , यह सूक्ष्म शारीर भी नहीं तो फिर अपने आप को मई कहने वाली वह कोंसी चीज है जो इस जन्म से पहले से चली आ रही है?
वह शक्ति जो इस जन्म से पहले से ही नही,बल्कि न मालुम कितने जन्मों के साथ चली आ रही है, 'प्राण' है| इस जन्म के हमारे व्यक्तिगत इतिहास को बुद्धि के द्वारा जान सकते है,लेकिन इसके पहले के इतिहास को बिना प्राण की मदद के हम नहीं जान सकते| और जब तक हम हमारे पहले के इतिहास को नही जानते,तब तक हमारे संपर्क में आने वाले प्रमुख व्यक्तियों के हेतु को भी हम नहीं जान सकते कि कौन मित्रता वश हमारा कल्याण करने के लिए हमारे पास आ रहा है|व कौन शत्रुता वश हमसे कुछ छीन कर ले जाने के लिए हमारे पास आ रहा है|
प्राण के इस महत्व व प्राण की इस भूमिका को स्वयं के इतिहास को समझने के लिए समझना आवश्यक होगा| और यही क्षत्रियों की परम्परागत साधना का मार्ग है|
जब हम किसी बार को दावे के साथ कहते है तो अपने दाहिने हाथ को सीने पर ठोकते है| हमारे हाथ का कलाई वाला भाग जिस स्थान पर पडता है,उसी स्थान पर सूक्ष्म अंग,जो सामान्य आँखों से नहीं दिखाई देता,'हृदय,स्थित है| और इस हृदय में प्राण निवास करता है,जिसका सतत विकास करने के लिए आत्मा सदा उसकी रहती है| इस प्रकार व्यक्ति स्वभाविक रूप से धीरे धीरे स्वतः ही विकसित हो रहा है| लेकिन हम प्रयास करें,व अपने प्राण से सम्पर्क साधने की चेष्टा करे,अपनी स्मृति को प्राण की खोज में लगा दें-जो हमारे व्यक्तिगत इतिहास को जानता है तो,निश्चित रूप से हम प्राण की मदद से अपने शत्रु व मित्रो की खोज कर सकते है|
अनंत जन्मों से चला आने वाला प्राण यह भी जानता है कि हमारी किसी बोद्धिक व आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ती कौन कर सकता है व उनमे मार्ग दर्शन कैसे प्राप्त किया जा सकता है| अतः निश्चित यह हुआ कि अगर हम अपने आपके इतिहास की खोज करने में जुट जाएँ तो हमे न केवल आपसी खिचातन व तनाव से मुक्ति मिलेगी बल्कि हम हमारे वास्तविक साधनापथ व साधनापथ के सहयोगियों को भी पहिचान सकेंगे| जिससे हमारे जीवन के संचालन में सुविधा होगी तथा जो लोग पहले हमारे से पीड़ित रहे है| अगर वे बदले की भावना से हमारे ऊपर आक्रामक कार्यवाही भी करते है तो हमारे मन में प्रतिरोध व प्रतिशोध की भावना पैदा नहीं होगी? क्योंकि हम जान जायेंगे कि यह सब हमारी गलती का परिणाम है,जिसका प्रतिकार नहीं करके ही हम अनावश्यक संघर्ष को हमेशा के लिए समाप्त कर सकते है|
अतः आवश्यक यह है कि हम अपने आप के इतिहास को देखने व समझने की चेष्टा करें| इस जन्म के इतिहास को मनन द्वारा,व पूर्व जन्म के इतिहास को ध्यान के द्वारा ही समझा जा सकता है| अगर इस प्रक्रिया का अनुसरण नहीं किया गया तो हमारी यह भूल कभी सुधरने वाली नहीं है| व्यक्तियों में विभाजित हमारा आज का समाज बिना इस प्रक्रिया को अपनाए कभी भी वास्तविक समाज नहीं बन सकेगा|
क्रमश:...........
क्षत्रिय चिन्तक
श्री देवीसिंह जी महार एक क्षत्रिय चिन्तक व संगठनकर्ता है आप पूर्व में पुलिस अधिकारी रह चुकें है क्षत्रियों के पतन के कारणों पर आपने गहन चिंतन किया है यहाँ प्रस्तुत है आपके द्वारा किया गया आत्म-चिंतन व क्षत्रियों द्वारा की गयी उन भूलों का जिक्र जिनके चलते क्षत्रियों का पतन हुआ | इस चिंतन और उन भूलों के बारे में क्यों चर्चा की जाय इसका उत्तर भी आपके द्वारा लिखी गयी इस श्रंखला में ही आपको मिलेगा |